ISC / काव्‍य मंजरी


1. साखी    

    













कबीरदास

कवि परिचय:

१. कबीरदास जी भक्‍तिकाल के संत काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी निर्गुण शाखा के राम भक्‍ति शाखा के प्रमुख  
    कवि हैं।   
२. इन्होंने अपने दोहों में बाह्‍याडंबर, पूजा-पाठ, जाति-पाँति आदि का विरोध किया है। अत: इनकी
    रचनाओं में समाज सुधारक का निर्भीक स्वर सुनाई देता है।
३. इन्होंने सत्संग, पर्यटन तथा अपने अनुभवों से ज्ञान प्राप्‍त किया था।
४. भाषा: इनकी भाषा को सधुक्‍कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है।
५. रचना:  बीजक है। इसके तीन भाग हैं-  १. साखी, २. सबद, ३. रमैणी।

शब्दार्थ :

१. बरष्‍या- बरस पड़ा
२. बनराइ- समस्‍त विश्‍व
३. बासुरि- दिन
४. रैणि- रात
५. मूवां- मरने पर
६. झाईं- अँधेरा-सा
७. रिसाइ- रुष्‍ट होना
८. विसूरणां- दु:ख, चिंता
९. मैं- अहंकार
१०. बिरला- कोई-कोई

प्रश्‍न: कबीरदास का संक्षिप्‍त साहित्‍यिक परिचय देते हुए ‘साखी’ शब्द का अर्थ बताएँ साथ ही यह भी
       बताएँ कि उन्होंने अपने दोहे में किस सत्‍य को उजागर किया है ?

उत्‍तर- कबीरदास जी भक्‍तिकाल के संत काव्यधारा के ज्ञानाश्रयी निर्गुण शाखा के राम भक्‍ति शाखा के प्रमुख  
कवि हैं। इन्होंने अपने दोहों में बाह्‍याडंबर, पूजा-पाठ, जाति-पाँति आदि का विरोध किया है। अत: इनकी रचनाओं में समाज सुधारक का निर्भीक स्वर सुनाई देता है। इन्होंने सत्संग, पर्यटन तथा अपने अनुभवों से ज्ञान प्राप्‍त किया था। इनकी भाषा को सधुक्‍कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है। इनकी रचना बीजक है। इसके तीन भाग हैं-  १. साखी, २. सबद, ३. रमैणी।

  ‘साखी’ कवि कबीरदास द्‌वारा रचित है। इसका अर्थ साक्षी, प्रमाण या गवाह होता है।
    कबीरदास जी ने अपने ‘साखी’ में सतगुरु की महिमा, प्रभु या गुरु  के प्रेम एवं अनुग्रह की कृपा, प्रभु-विरह की व्याकुलता, प्रियतम (प्रभु) से मिलन की तीव्र आकांक्षा, गुरु की कृपा से परम तत्‍व के दर्शन, ईश्‍वर के ज्ञान से अहं की समाप्‍ति तथा सच्‍चे वैराग्‍य के द्‌वारा मन को योगी की भाँति बना लेना जैसे सत्‍य को उजागर किया है।
    कबीरदास जी ने सतगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि जिसे सतगुरु की प्राप्‍ति हो गई है, वह लोक एवं वेद की परंपरा से मुक्‍त हो जाता है। जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से मार्ग का अंधकार नष्‍ट हो जाता है, उसी प्रकार गुरु की कृपा से ज्ञान प्राप्‍त होता है और वह सांसारिक मोह-माया के बंधन से मुक्‍त हो जाता है। कवि कहते हैं कि गुरु की कृपा से भक्‍ति अथवा ज्ञान की दृष्‍टि जग जाने पर विश्‍व जड़ एवं दुखमय प्रतीत न होकर ईश्‍वरमय और आनंदमय लगने लगता है। उदाहरणार्थ:

        कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्‍या आइ।
           अंतरि भीगी आत्‍मां हरी भई बनराइ॥


    प्रभु-विरह की व्याकुलता को स्पष्‍ट करते हुए कवि कहते हैं कि राम से बिछुड़ने पर जीव को कहीं भी सुख नहीं मिलता। न ही उसे दिन में चैन मिलता है और न ही रात में चैन मिलता है। कवि के शब्‍दों में-

     बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
     कबीर बिछिट्‍या राम सूं, ना सुख धूप न छाँह॥

   
    अत: कवि कहते हैं कि हमें समय रहते ही ईश्‍वर अर्थात सत्‍य की प्राप्‍ति हो जानी चाहिए, क्योंकि उनकी महिमा प्राप्‍त हो जाने से मन के सारे द्‌वेष, विकार  हट जाते हैं । समय बीत जाने पर कोई फायदा नहीं जिस तरह से पारस पत्‍थर  समय रहते मिल जाने से लोहा को स्वर्ण बनाया जा सकता है  समय बीत जाने पर जब लोहा ही नहीं बचेगा तब पारस पत्थर मिलने पर भी उसका कोई सदुपयोग नहीं होगा।

    गुरु की कृपा से परम तत्‍व के दर्शन, ईश्‍वर के ज्ञान से अहं की समाप्‍ति  हो जाती है। कवि कहते हैं कि जब-तक मानव में अहं की भावना रहती है , तब-तक उसे ईश्‍वर की प्राप्‍ति नहीं होती है। गुरु की कृपा से इंसान अहं की भावना से छुटकारा पा लेता है, उसे ईश्‍वर की प्राप्‍ति हो जाती है। कवि कहते हैं कि गुरु की कृपा से मानव का अहं ईश्‍वर में विलीन हो जाता है और उसे परम ज्योति के दर्शन होते हैं, जिससे उसका अज्ञान दूर हो जाता है। कवि के शब्दों में :-

     जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नाहिं।
     सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्‍या माहिं॥

अंतत: हम कह सकते हैं कि कवि ने अपने दोहे ‘साखी’ में सतगुरु की महिमा, प्रभु या गुरु  के प्रेम एवं अनुग्रह की कृपा, प्रभु-विरह की व्याकुलता, प्रियतम (प्रभु) से मिलन की तीव्र आकांक्षा, गुरु की कृपा से परम तत्‍व के दर्शन, ईश्‍वर के ज्ञान से अहं की समाप्‍ति तथा सच्‍चे वैराग्‍य के द्‌वारा मन को योगी की भाँति बना लेना जैसे सत्‍य को उजागर किया है।






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2. बाल लीला 












(सूरदास)
   

कवि परिचय:

१. सूरदास हिंदी के कृष्‍ण भक्‍ति शाखा के कवियों में सर्वोपरि समझे जाते हैं।
२. इन्हें वात्‍सल्‍य रस का सम्राट कहा जाता है।
३. इन्होंने अपनी बंद आँखों से श्री कृष्‍ण के बालरूप का जो वर्णन किया है , उस आधार पर इनके बारे में यह कहा जाता है कि इन्हें माता यशोदा का हृदय प्राप्‍त था।
४. इन्होंने श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का वर्णन किया है।
५. रचनाएँ : सूरसागर, सूरसारावली, साहित्‍य लहरी आदि
६. भाषा : इनके काव्‍य की भाषा ब्रज भाषा है।

पंक्‍तियों पर आधारित प्रश्‍नोत्‍तर:

१. मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
     मौं सो कहत मोल को लीन्हों, तू जसुमति कब जायो।
     कहा करौं इहि रिस के मारे, खेलन हौं नहिं जात।
     पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को हैतेरौ तात।
     गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्याम सरीर।


प्रश्‍न क) कवि और कविता का नाम लिखते हुए बताएँ कि कवि किस भक्‍ति शाखा के कवि थे ?
उत्‍तर  - कवि का नाम सूरदास और कविता का नाम ‘बाल लीला’ है।
    कवि सूरदास भक्‍तिकाल की सगुण काव्‍यधारा के अंतर्गत आने वाली कृष्‍ण काव्‍यधारा के कवि थे।

प्रश्‍न ख) दाऊ कौन है ? वह, किसे, क्या कहकर चिढ़ाता है तथा इसके पीछे वह क्‍या तर्क देता है ?
उत्‍तर -    दाऊ बलराम है। वह कृष्‍ण के बड़े भाई हैं। वह, कृष्ण यह कहकर चिढ़ाता है कि उसे मोल लिया गया है अर्थात उसे खरीदा गया है। बलराम कहता है कि कृष्‍ण का जन्‍म इस घर में नहीं हुआ है।
इसके पीछे वह यह तर्क देता है कि नंद और यशोदा गोरे शरीर वाले हैं। जबकि, कृष्‍ण साँवले रंग के हैं। अत: यशोदा और नंद उसके माता-पिता कैसे हो सकते हैं। इस प्रकार वह कहता है कि उसे बाहर से लाकर पाला जा रहा है।

प्रश्‍न ग) कृष्‍ण का बालरूप कवि को किस प्रकार मोहित करता है ?
उत्‍तर -    सूरदास श्रीकृष्‍ण के बालरूप से बहुत प्रभावित हैं। वे उनकी बाल क्रीड़ाओं से अत्‍यंत मोहित हैं। उनका रूप-स्वरूप एक दिव्‍य आनंद प्रदान करता है। कृष्‍ण का माखन लेकर चलना, घूटनों के बल रेंग-रेंग कर चलना, धूल में सना शरीर, मुँह पर दही का लेप आदि सम्‍मोहन भाव देते हैं। इसलिए कवि सूरदास ने उनके ऐसे ही रूप स्‍वरूप व क्रीड़ाओं का बाल-सुलभ वर्णन किया है।

प्रश्‍न घ) प्रस्‍तुत पद के आधार पर कवि की भक्‍ति भावना का वर्णन करें।
उत्‍तर -  प्रस्‍तुत पद में सूरदास ने श्री कृष्‍ण की बाल लीलाओं का सुंदर और आकर्षक वर्णन किया है। उन्होंने भक्‍ति का ऐसा मार्ग चुना है जिसका संबंध वात्‍सल्‍य रस से है। वे भगवान श्री कृष्‍ण के बालरूप का मनोवैज्ञानिक वर्णन करते हैं। इसलिए उन्हें हिंदी के वात्‍सल्‍य रस के सम्राट के रूप में जाना जाता है। न केवल हिंदी, अपितु विश्‍व की किसी भी भाषा के साहित्‍य में ऐसा अनूठा बाल-सुलभ वर्णन नहीं मिलता।





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3. एक फूल की चाह       













 

सियारामशरण गुप्‍त -


कवि परिचय:

१. ये आधुनिक काल के कवि हैं।
२. ये राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्‍त जी के छोटे भाई हैं।
३. इनकी रचनाओं में सत्य, अहिंसा, करुणा आदि भाव दिखाई देता है।
४. रचनाएँ: आर्द्रा, मौर्य विजय, नकुल आदि।
५. भाषा: इनकी रचनाओं की भाषा सरल है।

शब्दार्थ:

१. निहार- देखकर
२.ताप-तप्‍त- बुखार से गरम
३.शिथिल- कमजोर
४. विह्‍वल- बेचैन
५.क्षीण- कमजोर, दुर्बल
६.अवयव- शरीर के अंग
७.ग्रसने- निगलने
८.सरसिज- कमल
९. सौदित- प्रसन्‍नता के साथ
१०. मुद- आनंद
११. सिंहपौर- सिंहद्‌वार
१२. परिधान- वस्‍त्र
१३. शुचिता- पवित्रता

प्रश्‍न: कवि का संक्षिप्‍त साहित्यिक परिचय देते हुए बताएँ कि किसे, किस चीज की चाह थी ? क्या उसकी
   चाह पूरी हुई ? स्पष्‍ट करें। आज के संदर्भ में यह कविता कहाँ तक प्रासंगिक है ?

उत्‍तर: सियारामशरण गुप्‍त जी आधुनिक काल के कवि हैं। ये राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्‍त जी के छोटे भाई  
          हैं। इनकी रचनाओं में सत्य, अहिंसा, करुणा आदि भाव दिखाई देता है। इन्होंने आर्द्रा, मौर्य विजय, नकुल आदि रचनाएँ लिखी हैं। इनकी रचनाओं की भाषा सरल है।
     कविता में एक छोटी-सी लड़की, जिसका नाम सुखिया है, उसे देवी प्रसाद के रूप में एक फूल की चाह थी।
    सुखिया की चाह समाज में व्याप्‍त जाँति-पाँति, ऊँच-नीच, अंधविश्‍वास आदि के कारण पूरी न हो पाई।
    कविता में सुखिया नामक एक छोटी सी बच्‍ची बुखार से तप रही थी। उसकी हालत बहुत ही दयनीय थी। उस स्‍थिति में वह अपने पिता से देवी प्रसाद के रूप में एक फूल की माँग करती है। उसके पिता उसकी बिगड़ती हालत देख कर परेशान हो जाते हैं। परेशानी की अवस्‍था में उन्हें पता भी नहीं चलता कि कब सुबह हुई, कब दोपहर। उदाहरणार्थ:

बैठा था नव-नव उपाय का,
चिंता में मैं मन मारे।
जान सका न, प्रभात सजग से,
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
कब लौटी संध्या गहरी।

पिता को बेटी की दुर्वस्था को देखकर चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। उसे लगता है कि मेरी बेटी को  तिमिर ग्रसने आया है। पुत्री की हालत देखकर पिता समाज की स्थिति से परिचित होते हुए भी मंदिर जाकर उसके लिए फूल प्रसाद के रूप में लाने जाते हैं।
        मंदिर के पास जब पिता पहुँचते हैं तो वे देखते हैं कि मंदिर दीप-धूल से आच्‍छादित हैं। भक्‍त-गण सुमधुर कंठ से भक्‍ति के गीत गा रहे हैं । जब वे दीप-फूल लेकर अंबा को अर्पित करने के लिए पुजारी को दिए और वह पुण्‍य-पुष्‍प प्रसाद के रूप में लेकर बेटी को देने के लिए घुमे, उतनी ही देर में कुछ भक्‍तों की आवाज सुनाई देती है-

कैसे यह अछूत भीतर आया ?
पकड़ो, देखो भाग न जाए,
बना धूर्त है यह कैसा,
साफ-स्‍वच्‍छ परिधान किए है
भले मनुष्‍यों के जैसा।

वे भक्‍त-गण जाति, धर्म, पहनावा आदि मात्र के आधार पर लोगों का बँटवारा करते हैं । उनका मानना था कि ऐसे लोग ईश्‍वर को भी अपवित्र कर देते हैं। जबकि हम यह जानते हैं कि ईश्‍वर हर लोगों का कलुष दूर करते हैं। कवि कहते हैं कि किसी भी इंसान का पाप इतना बड़ा नहीं होता कि उससे ईश्‍वर अपवित्र हो जाए। निम्‍नलिखित उदाहरण प्रस्‍तुत है:

ऐं ! क्या मेरा कलुष बड़ा है
देवी की गरिमा से भी ?
किसी बात में हूँ मैं आगे,
माता की महिमा के भी ?

उपर्युक्‍त कथन के आधार पर हम कह सकते हैं कि ऐसे लोग आज भी हमारे समाज में व्याप्‍त है जो कहने के लिए तो ईश्‍वर के भक्‍त कहे जाते हैं , समाज के ठेकेदार माने जाते हैं, जबकि ऐसे लोग समाज के लिए, मानवता के लिए बहुत बड़ा कलंक है। निम्‍न पंक्‍तियाँ प्रस्‍तुत है:

माँ के भक्‍त हुए तुम कैसे,
करके यह विचार खोटा ?
माँ के सम्‍मुख ही माँ का तुम
गौरव करते हो छोटा ?

इस प्रकार हम देखते हैं कि वे भक्‍त पिता को घेर कर पकड़ लेते हैं और  मार-मार कर नीचे गिरा देते हैं। पिता के हाथों से वह प्रसाद भी बिखर जाता है। वे अपनी पुत्री को एक बार गोद में लेने के लिए तड़प उठते हैं उस तक प्रसाद पहुँचाने के लिए बेचैन हो जाते हैं। पर, वे असफल हो जाते हैं। उसे बचा नहीं पाते हैं। उदाहरणार्थ:

अंतिम बार गोद में बेटी;
तुझको ले न सका मैं हा
एक फूल माँ के प्रसाद का
तुझको दे न सका मैं हा !

अंतत: हम कह सकते हैं कि किस प्रकार आज भी हमारा समाज मानव के गुणों को महत्‍त्‍व न देकर जाति प्रथा में उलझकर मानवता को कलंकित किए हुए है।

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4. आः धरती कितना देती है














सुमित्रानंदन पंत

कवि परिचय:
१. सुमित्रानंदन पंत आधुनिक काल के चार प्रमुख छायावादी कवियों में से एक हैं।
२. इन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है।
३. प्रकृति का जैसा मनोरम वर्णन इन्होंने किया है, वैसा आज तक किसी ने नहीं किया है।
४. प्रकृति, नारी और सौंदर्य को इन्होंने उदात्‍त रूप दिया है।
५. साहित्यकार राजेन्द्र यादव कहते हैं कि 'पंत अंग्रेज़ी के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।'
६.  प्रमुख रचनाएँ – वीणा , पल्लव , चिदंबरा , युगवाणी , लोकायतन , युगपथ, स्वर्णकिरण , कला और बूढ़ा चाँद आदि।
७. भाषा: इन्होंने सहज भाषा का प्रयोग किया है।
शब्दार्थ
१. छुटपन- बचपन
२. कलदार- रुपया
३. बंजर- अनुपजाऊ भूमि
४. डिंब- अंडा
५. चँदोवे- शामियाना
   
प्रश्‍न : ' आः धरती कितना देती है ’ कविता के माध्यम से कवि ने धरती के किस रूप का वर्णन किया है तथा मनुष्य उसके उस रूप को क्यों नहीं देख पाते हैं ? कवि पाठकों को क्या संदेश दे रहें हैं ?
उत्तर : आधुनिककालीन  छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत जी द्‌वारा विरचित कविता 'आः धरती कितना देती है ’ में कवि ने धरती के रत्‍न उगलने वाली रूप का वर्णन किया है। ये ऐसे साहित्यकारों में गिने जाते हैं जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। आधी सदी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकाल में आधुनिक हिंदी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है।  प्रमुख रचनाएँ – वीणा , पल्लव , चिदंबरा , युगवाणी , लोकायतन , युगपथ, स्वर्णकिरण , कला और बूढ़ा चाँद आदि।
’ आः धरती कितना देती है ’ कविता के माध्यम से पंत जी ने धरती को रत्‍न प्रसविनी बताया है। कवि के अनुसार धरती की कोख़ में अमूल्य रत्‍नों का कोष है, परंतु वह केवल कर्मवीरों को ही प्राप्त होती है। कवि ने कहा भी है-

“ रत्‍न प्रसविनी है, वसुधा अब समझ सका हूँ ;
  इसमें सच्‍ची समता के दाने बोने हैं ;
  इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं ,
  इसमें मानव ममता के दाने बोने हैं,
  जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें,
  मानवता की जीवन श्रम से हँसें दिशाएँ,
  हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

उपर्युक्त पंक्तियों द्‍वारा ही कवि ने अपने कथन को स्पष्ट किया है कि, मानव यदि मानवता की राह पर चलकर, अपने श्रम की बूँदों से इस धरती को सींचे, तो यह धरती रत्न प्रसविनी बनकर उस कर्मवीर को मणि-मणिकाओं से भर देगी। जिस प्रकार कवि ने फल की कामना किए बिना, कुछ सेम के बीज धरती पर बोएँ थे तो वे अंकुरित होकर एक हरी-भरी लता में बदल जाती है। वह सेम से लद जाती है। कवि के अनुसार उस लता में इतने सेम लगते हैं कि, केवल उनका घर ही नहीं वरन्‍ , उनके पड़ोसी भी उस सेम का भरपूर उपभोग करते हैं।

 कवि के अनुसार मानव अपने स्वार्थ, लालच, ,माया-मोह के कारण ही धरती के वास्तविक रूप को नहीं देख पाता है। वह नहीं समझ पाता है कि यह धरती सभी की माँ है। अतः जब तक इसकी एक भी संतान अपने अन्य भाई-बहनों की मंगलकामना किए बिना, इस धरती माँ से कुछ कामना करेगा तो वह पूर्ण नहीं होगी। जैसे स्वयं कवि ने बचपन में धनाढय बनने की लालसा में धरती के गर्भ में पैसे बो दिए थे। उनमें बचपना था, वे यह सोचते थे कि पैसों के पेड़ उगेंगे और रुपयों की फसल लहराएँगी।
 “ मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे ,
  सोचा था पैसे के प्यारे पेड़ उगेंगे।“
 मनुष्य अपने स्वार्थीपन में भूल जाता है कि , धरती रत्न प्रसविनी है। हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे। प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि ने मनुष्य की इस अज्ञानता को भी दिखाया है, कि वह अपनी असफलता का दोष दूसरों को देता है।जिस प्रकार जब बोए हुए पैसों से पेड़ नहीं उगते तो, कवि रत्न प्रसविनी वसुधा पर ही बंजर और अनुपजाऊ होने का लांछन लगाते हैं।
प्रस्तुत कविता का उद्‍देश्‍य मानव-मात्र को यह समझाना है कि , हमें इस धरती में समता के दाने बोने हैं , अर्थात सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। इस धरती में सभी की क्षमता तथा ममता के दाने बोने हैं , अर्थात हमें एक दूसरे की क्षमता को स्वीकारना होगा तथा एक दूसरे के प्रति प्रेम की भावना रखनी होगी।
कवि के विचार से पूर्णतः सहमत हूँ क्योंकि , देश में फैली अराजकता का मूल कारण लोगों के बीच के अलगाववाद का ही दुष्‍परिणाम है। पृथ्वी हमें कितना देती है, बस देती ही जाती है, पर हम इसे क्या दे रहे हैं – पृथ्वी को हमारे शास्त्रों में सबसे पहले नमन किया जाता है । हिन्दु धर्म में गायत्री मंत्र सबसे अधिक शक्तिशाली मंत्र माना जाता है जिसकी शक्ति एवं ऊर्जा को देश-विदेश में स्वीकारा गया है । इसमें भी पृथ्वी की महत्ता वणिर्त है । कहने का तात्पर्य यह कि पृथ्वी को हमेशा पूजनीय माना गया है । । करोड़ों वर्षों से पृथ्वी ने अपने बचाव और संतुलन के कई मार्ग खोजे किन्तु मानव जाति ने हमेशा उसके मार्ग को अवरुद्ध किया । पृथ्वी के ऊपर मानव जाति ने  इतने दवाब बना रखे हैं कि उसमे असामान्य रूप से विचलन की परिस्थिति उत्पन्न हो गई है । जिसके कारण आए दिन प्राकृतिक आपदा से विश्व जूझ रहा है । फिर भी हमें होश नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं । टुकड़ों - टुकड़ों में धरती ने यह  संकेत देना शुरु कर दिया है कि अब ज्यादा समय मानव जाति की मनमानी नहीं चलने वाली है । नदियाँ सूख रही हैं हमारे बीच पानी का अभाव होता जा रहा है ।


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५.नदी के द्‌वीप













(अज्ञेय)

कवि परिचय:

१. अज्ञेय का पूरा नाम सच्‍चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन ‘अज्ञेय’ है।
२. अज्ञेय जी हिंदी में ‘प्रयोगवाद’ और ‘नई कविता’ के प्रवर्तक माने जाते हैं।
३. इनकी रचनाओं मेंबौद्‌धिकता की प्रधानता, प्रेम और सौंदर्य, प्रकृति चित्रण तथा राष्‍ट्रीय भावनाओं की झलक है।
४. रचनाएँ : आँगन के पार द्‌वार, इत्‍यलम्‌, हरी घास पर क्षण भर, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, कितनी नावों में कितनी बार  
    (ज्ञानपीठ पुरस्कार), पूर्वा आदि।
शब्दार्थ:
१. स्‍त्रोतस्‍विनी- नदी
२. अंतरीप- द्‌वीप
३. प्‍लवन- उछलना-कूदना
४. गँदला- मटमैला
५. वृहत- बड़ा
६. सैकत- रेतीला
७. कूल- तट
८. सलिल- पानी
९. क्रोड- गोद
१०. पितर- पिता।
१. माँ है वह ! इसी से हम बने हैं,
    किंतु हम हैं द्‌वीप ! हम धारा नहीं हैं,
    स्‍थिर समर्पण है हमारा, हम सदा से द्‌वीप हैं स्‍त्रोत्स्‍विनी के।
क) कवि और कविता का नाम लिखकर बताएँ कि कवि किस काल के किस धारा के कवि हैं ?
-   कवि का नाम सच्‍चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन ‘अज्ञेय’ और कविता का नाम  ‘नदी के द्‌वीप’ है। कवि आधुनिक काल की प्रयोगवादी धारा के कवि हैं।
ख) किसे माँ कहा जा रहा है और क्यों ?
- नदी को माँ कहा जा रहा है। माँ कहने वाले द्‌वीप हैं। उनका मानना है कि द्‌वीपों की रचना तथा संरचना नदी द्‌वारा ही की जाती है। वही उनको आकार या स्वरूप देती है।
ग) द्‌वीप की विशेषता क्या है ?
- द्‌वीप की विशेषता है कि वह नदी का एक भाग होकर भी उससे अलग अस्तित्‍व रखता है। नदी ही द्‌वीपों का निर्माण करती है। उसकी धारा उसे रूप-स्वरूप देती है। उन्हें कटाव व कोण प्रदान करती है परंतु फिर भी वे धारा नहीं है। वे धारा के साथ नहीं बल्‍कि अपना अस्‍तित्‍व बनाए रखते हैं। उनका समर्पण नदी के प्रति स्‍थिर है।
घ) प्रस्‍तुत कविता का सामाजिक संदर्भ उजागर करें।
- प्रस्‍तुत कविता एक प्रतीकात्‍मक कविता है। इसमें नदी द्‌वीप तथा भूखंड को प्रतीक के रूप में चुना गया है। इसमें व्‍यक्‍ति, समाज और परंपरा के आपसी संबंधों को सर्वथा नवीन दृष्‍टि से देखा गया है। यहाँ द्‌वीप, नदी और भूखंड को क्रमश: व्‍यक्‍ति, परंपरा और समाज के प्रतीक के रूप में चुना गया है। कवि का विचार है कि जिस प्रकार द्‌वीप ‘भू’ का ही एक खंड है परंतु नदी के कारण उसका अस्तित्‍व अलग है, उसी प्रकार व्‍यक्‍ति भी समाज का एक अंग है परंतु सामाजिक परंपराएँ उसे विशिष्‍ट व्‍यक्‍तित्‍व प्रदान करती हैं।
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6. तुलसीदास के पद







तुलसीदास

कवि परिचय:   

१. तुलसीदास भक्‍तिकाल के सगुण भक्‍तिधारा के रामभक्‍ति शाखा के प्रमुख कवि हैं।
२. तुलसीदास मात्र कवि ही नहीं बल्‍कि लोकनायक भी थे। 
३. इनके आराध्‍य देव श्रीराम थे।

४.रचनाएँ:  रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, दोहावली, गीतावली, कृष्‍ण गीतावली आदि।
५. भाषा:  इन्‍होंने अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं में अपनी रचनाएँ लिखी हैं।

पंक्‍तियों पर आधारित प्रश्‍नोत्‍तर

दूलह श्री रघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावति गीत सबै मिलि सुंदर बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारति जानकी, कंकन के नग की परछाहीं।
यातें सबै सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारत नाहीं॥

(i) प्रश्‍न-  उपरोक्‍त पंक्‍तियाँ कवि की किस रचना के किस कांड से अवतरित हैं ? ‘मंदिरशब्‍द से क्या तात्पर्य है ?   [1½]    
    उत्‍तर-  उपरोक्‍त पंक्‍तियाँ कवि कीकवितावलीरचना के बालकांड से अवतरित हैं मंदिरशब्‍द से तात्पर्य
              राजमहल से है।

(ii) प्रश्‍न- गावति गीत सबै मिलि सुंदर बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं पंक्‍ति का भाव स्‍पष्‍ट करें।                        [3]      
    
उत्‍तर- प्रस्तुत पंक्‍ति द्वारा कवि कहना चाहते हैं कि श्रीराम और सीता के विवाह उत्‍सव में सभी शामिल हैं। इस
             उत्सव में सभी मिलकर सुंदर गीत गा रहे हैं। युवा ब्राह्‌मण सभी मिलकर वेद पाठ कर रहे हैं, जिससे इस
             दाम्‍पत्‍य प्राणी का जीवन मंगलमय हो।

(iii) प्रश्‍न-  कौन, किसका रूप निहार रहा है और क्‍यों ? स्‍पष्‍ट करें।                                                               [3]
   
    उत्‍तर-  सीता, श्रीराम का रूप निहार रही है क्‍योंकि वे दुल्हा वेश में अति सुंदर दीख रहे हैं। साथ ही उनका यह  
                वेश जब वह अपने हाथ में पहने कंकन में जरे नग में जब उनकी (श्रीराम) परछाई पड़ती है तो वह स्‍वयं को  
                रोक नहीं पाती और एक टक निहारती रहती है। 

(iv) प्रश्‍न- पठित पदों के आधार पर कवि की भक्‍ति भावना पर प्रकाश डालिए।।                                                [5]
      
    उत्‍तर- कवि तुलसीदास भक्‍तिकाल के सगुण भक्‍ति धारा के  रामभक्‍ति शाखा के प्रमुख कवि हैं। ये श्रीराम के  
                अनन्‍य भक्‍त थे। इनका मानना है कि श्रीराम पतित-पावन हैं। अत: इनके चरणों में जो भी जाता है, उनका  
               उद्धार होता है। इन्हें दीन दुखी बहुत प्यारे हैं। इनकी कृपा से पक्षी जटायु, पशु ऋक्ष और वानर, व्याध  
               वाल्मीकि या अजामिल, पत्‍थर जो गौतम की पत्‍नी अहिल्‍या थीं, जड़ वृक्ष यमालार्जुन और यवनों को मुक्‍ति  
               मिली। अत: कवि श्रीराम को छोड़कर किसी अन्य देवी-देवता के शरण में नहीं जाना चाहते हैं।

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 ७. जाग तुझको दूर जाना



                   
                   










  - महादेवी वर्मा










रचनाकार परिचय:



१. ये आधुनिक काल की चार प्रमुख छायावादी रचनाकारों में से एक हैं।

२. ये आधुनिक काल की मीरा भी कही जाती हैं।

३. दुख और करुणा इनके काव्य का मूल स्वर रहा है।
४. काव्य और गद्‌य दोनों विधाओं पर समान अधिकार है।
५. रचनाएँ: नीरजा, नीहार, रश्मि, यामा, दीपशिखा, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, श्रृंखला की कड़ियाँ
     आदि।
६. भाषा: इन्होंने संस्कृतनिष्‍ठ खड़ी बोली का प्रयोग किया है।
७. पुरस्कार:  पद्‌म भूषण, ज्ञानपीठ, भारत भारती, सेक्सरिया  और मंगलाप्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  

शब्दार्थ :             

१. चिर - बहुत समय से                                            
२. उनींदी- नींद से भरा हुआ
३. अचल स्थिर, अडिग
४. अलसितआलस्य से भरा
५. विद्‌युत- बिजली
६. क्रंदनरोना
७. काराबंधन, जेल
८. मधुप – भौंरा
९. वज्र – कठोर
१०. सुधा - अमृत
११. वात - हवा
१२. मलय- चंदन
१३. उपधानसहारा, तकिया
१४. पताका - ध्वज
१५.मानिनी - मान करने वाली

प्रश्‍न - 'जाग तुझको दूर जाना कविता का मुख्‍य विषय क्या है ? इस कविता द्‌वारा कवयित्री ने पाठकों में किस तरह
          के भाव जगाने की कोशिश की है ?

उत्‍तर - आधुनिक कालिन कवयित्री महादेवी वर्मा  द्‌वारा विरचित गीत 'जाग तुझको दूर जानाका मुख्‍य विषय
देशभक्ति का स्वर मुखरित करना है तथा मानव को जीवनपथ पर दृढ़ता, आत्मविश्वास  एवं            अविचल होकर बढ़ते रहने की प्रेरणा देना रहा है कवयित्री ने जहाँ अपने गीतों मे सूक्ष्म,  
संवेदनशीलता का परिचय दिया है वहीं समृद् कल्पना शक्ति और अनुभूतिपूरक चित्रात्मकता के दर्शन भी होते हैं आधुनिक काल की मीरा कही जाने वाली कवयित्री को पद् भूषण, ज्ञानपीठ, भारत भारती, सेक्सरिया  और मंगलाप्रसाद पुरस्कार से सम्मानित किया गयामूलत: प्रेम और विरह की रचना करने वाली यह कवयित्री छायावादी और रहस्यवादी रचनाकारों में भी अग्रणी रही हैं इनके द्वारा  विरचित प्रमुख रचनाएँ नीहार, नीरजा, रश्मि, दीपशिखा, यामा, स्मृति की कड़ियाँ, अतीत के चलचित्र आदि है
प्रस्तुत गीत द्वारा कवयित्री ने पाठकों में देश के प्रति प्रेम, भक्ति निष्ठा का भाव जगाने की कोशिश की हैकवयित्री का कहना है कि विपरीत परिस्थतियों में भी मानव को अपना लक्ष्य नहीं भूलना चाहिए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते हुए चाहे कितनी ही बाधाओं का सामना क्यों करना पड़े , चाहे अडिग रहने वाला हिमालय डोल उठे या सदा शांत रहने वाला अलसाया आकाश प्रलय के आँसू बहाए अर्थात भीषण वर्षा करे, चाहे प्रकाश लेश मात्र रहे, चाहे चारो ओर घना अंधकार छा जाए या बिजली की भयंकर चमक के साथ तूफान ही क्यों टूट पड़े, पर मानव को निरंतर आगे बढ़ते हुए विनाश और विध्वंश के बीच नव-निर्माण के चिह् छोड़ना  होगा कवयित्री का मानना है कि दृढ़ इच्छा शक्ति के आगे विपरीत परिस्थितियों को भी झुकना पड़ता है अत: हमें इन सबको चुनौती देते हुए दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ प्राकृतिक आपदा का भी सामना करते हुए आगे बढ़ना होगा ऐसा करने पर ही सफलता हमारा कदम चूमेगी
कहा जाता है कि चौरासी लाख योनियों के बाद मानव योनि की प्राप्ति होती है अत: मानव जीवन का सही अर्थ समझते हुए हमें अपने व्यवहार में भी इसे उतारना है यह संसार मोह माया से ग्रस्त है और यह तो हम जानते ही हैं कि सांसारिक बंधन बहुत आकर्षक होते हैं कवयित्री कहती है कि ये बंधन मोम की भाँति हैं जो अत्यंत कोमल तथा कमज़ोर होती है अत: हमें जीवन पथ पर इन बंधनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ते हुए अपने लक्ष्य की ओर अनवरत बढ़ना होगा इस मार्ग पर बढ़ते हुए हमें रिश्ते-नाते, मोह-माया अनेक तरह से हमारे पाँव में बेड़ियाँ डालने की कोशिश करेंगे कवयित्री का कहना है कि हमें इन सबसे दूर रहते हुए साधक की भूमिका निभानी होगी हमें तितलियों के रंगीन पंखों की तरह सांसारिक सौंदर्य से मुग् नहीं होना है, भौंरों के मधुर गुंजन की तर्ह सांसारिक जनों की मीठी-मीठी बातों से भी भरमित नहीं होना है, अपितु इन सब का मोह त्याग अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना है और अपने देश के दुख दर्द को समझते हुए उससे मुक् कराना है हमें अपनी ही परछाई से दिग्भ्रमित नहीं होना है कवयित्री के शब्दों में-

बाँध लेंगे क्या तुझे, यह मोम के बंधन सजीले ?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले ?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले ?
कवयित्री जीवन पथ के राही को अमरता-सुत कहती है अर्थात जीवात्मा परमात्मा का अंश होने के कारण अमरता का उत्तराधिकारी है अत: उन्हें मृत्यु को अपने हृदय में बसाने की आवश्यकता नहीं है उनका कहना है कि हमें निराश होकर अनंत शक्ति का स्त्रोत बनकर, स्वयं जगते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ना है क्योंकि अभी बहुत दूर तक उन्हें जाना है इस मार्ग पर बढ़ते हुए यदि असफलता भी मिले तो भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह हार भी जीत होगी उदाहरणार्थ:
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी
हार भी तेरी बनेगी मानिनी जय की पताका
राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी
है तुझे अंगार शैय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना
                               
अंतत: हम कह सकते हैं कि हमें हर तरह के व्यवधानों को पार करते हुए सतर्कता के साथ अपनी मंजील के ओर बढ़ना होगा

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८. उद्‌यमी नर





रामधारी सिंह दिनकर’
कवि परिचय:
१. ये हिन्दी के  एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे।
२. ये आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।
३. दिनकर की कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक
    भावनाओं की अभिव्यक्‍ति है।
४. इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
रचनाएँ:
कुरुक्षेत्र, रश्‍मिरथी, उर्वशी, हुंकार, संस्‍कृति के चार अध्‍याय, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार, चक्रव्‍यूह, आत्मजयी, वाजश्रवा के बहाने आदि।


उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४ वाँ स्थान दिया गया।
शब्दार्थ:
१. विभव- ऐश्‍वर्य
२.उद्‍यमी- मेहनती
३. कोष- ख़जाना
४. आवरण- परत

प्रश्‍न: आपके अनुसार स्वर्ग से क्या तात्पर्य है ? धरती को स्वर्ग कौन और कैसे बना सकता है ? ईश्‍वर द्‌वारा
        छिपाए तत्‍व को कौन, किस प्रकार पा सकता है ? प्रकृति किससे हारती है ? भाग्यवाद और शस्‍त्र     
        किसका आवरण है ? कवि के अनुसार नए समाज का भाग्य क्या है ? सोदाहरण स्‍पष्‍ट करें।

उत्‍तर- दिनकर जी हिन्दी के  एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के    
कवि के रूप में स्थापित हैं। दिनकर की कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।
उद्‌यमी नर कविता में स्वर्ग से तात्पर्य ऐसे स्थान से है जहाँ हर तरह की सुख-सुविधाएँ हों। जहाँ मानव शांती पूर्वक जीवन यापन करे।

धरती को स्वर्ग मानव अपनी मेहनत द्‌वारा बना सकता है। जिस तरह से वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत के बल पर नए-नए अनुसंधानों की खोज की और हम मानव को सुख-सुविधाएँ प्रदान की, ठीक इसी तरह से हम भी कर पृथ्‍वी को स्वर्ग बनाने में अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं।

 ईश्‍वर द्‌वारा छिपाए तत्‍व को कर्मशील प्राणी अपने कर्मों, परिश्रमों, संघर्षों के द्‌वारा पा सकता है।   
 कवि के शब्दों में-
                       
छिपा दिए सब तत्‍व आवरण के नीचे ईश्‍वर ने,
संघर्षों से ख़ोज निकाला उन्हें उद्‍यमी नर ने।

           प्रकृति उद्‍यमी नर से हारती है। वह अपने उद्‍यम द्‌वारा प्रकृति को अर्थात अपने भाग्य को भी   
           अपनी इच्‍छानुसार रचता है। वह भाग्‍यवादी इंसान के सामने नहीं बल्कि कर्मवादी इंसान के सामने  
           झुकती है। उदाहरणार्थ:

प्रकृति नहीं डर कर झुकती है, कभी भाग्य के बल से,
सदा हारती वह मनुष्‍य के उद्‌यम से, श्रमजल से।
ब्रह्‌मा का अभिलेख पढ़ा करते निरुद्‌यमी प्राणी
धोते वीर कुअंक भाल का बहा ध्रुवों से पानी।

             भाग्‍यवाद पाप का आवरण है और शस्‍त्र शोषण का। कवि कहते हैं कि जो कामचोर होते हैं वे    
             भाग्य के भरोसे रहते हैं और ऐसे लोग भाग्य का आवरण डालकर पाप कर्म करते हैं। दूसरी ओर      
             कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए, अपने शस्‍त्रों द्‌वारा असहाय  
              लोगों का शोषण करते हैं।

             कवि के अनुसार नर समाज का भाग्य मानव का श्रम है, उसका बाहुबल है। कवि कहते हैं कि जो    
             व्यक्‍ति परिश्रमी होते हैं वे अपने परिश्रम के बल पर असंभव कार्य को भी संभव कर दुनिया को  
             अपने अनुसार बना लेता है।
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9. बादल को घिरते देखा है (नागार्जुन)
   
कवि परिचय :

१. कवि नागार्जुन आधुनिक काल की जनवादी काव्‍यधारा के प्रमुख कवि हैं।
२. इनका वास्‍तविक नाम वैद्‌यनाथ मिश्र था।
३. बौद्‌धर्म से प्रभावित होकर इन्होंने अपना नाम नागार्जुन रख लिया।
४. इनकी रचनाओं में प्रकृति प्रेम, जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुख तथा मानवतावादे दृष्‍टिकोण की प्रधानता है।
५. रचनाएँ : युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, तुमने कहा था, प्रेत का बयान,रतिनाथ की चाची, नई पौध, बाबा बटेसर
    नाथ आदि।
६. भाषा : इनकी भाषा चित्रात्‍मक तथा संस्‍कृतनिष्‍ठ है। ये आरंभ में मैथिली भाषा में रचनाएँ लिखा करते थे।

शब्दार्थ:
१. अमल-स्‍वच्‍छ
२. तुहिन- ओस
३. विसतंतु- कमल की नाल के भीतर स्‍थित कोमल रेशे या तंतु
४. विरहित- अलग
५. शैवाल- पानी के ऊपर उगने वाली घास, सेवार
६. अलख- जो दिखाई न दे
७. परिमल- सुगंध
८. किन्‍नर- स्‍वर्ग के गायक
९. धवल- श्‍वेत
१०. सुघड़- सुंदर
११. वेणी- चोटी
१२. त्रिपदी- तिपाई
१३. शोणित-रक्‍त
१४. कुंतल- बाल
१५. कुवलय- नील कमल

१. कहाँ गया धनपति कुबेर वह      
     कहाँ गई उसकी वह अलका
     नहीं ठिकाना कालिदास के
     व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
     ढूँढा बहुत परंतु लगा क्या,
     मेघदूत का पता कहीं पर।
     कौन बताए वह छायामय
     बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
     जाने दो, वह कवि-कल्‍पित था,
     मैंने तो भीषण जाड़ों में
     नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
     महामेघ को झंझानिल से,
     गरज-गरज भिड़ते देखा है।

क) कवि और कविता का नाम  लिखकर बताएँ कि कवि किस काल की किस धारा के कवि हैं ?

-   कवि का नाम नागार्जुन तथा कविता का नाम बादल को घिरते देखा है’ है। कवि नागार्जुन आधुनिक काल की
    जनवादी काव्‍यधारा के प्रमुख कवि हैं।

ख) धनपति कुबेर को किस अर्थ में ग्रहण किया गया है तथा कालिदास और मेघदूत का प्रसंग क्यों छेड़ा गया है?

 -   ऐसा माना जाता है कि धन का देवता कुबेर हिमालय से संबंध रखता है। वहीं पर उसकी राजधानी थी   जिसका  नाम अलका था। परंतु आज उसका कोई चिह्‌न दिखाई नहीं दे रहा है।संस्‍कृत के महान कवि कालिदास ने अपनी कालजयी रचना मेघदूत की रचना भी हिमालय की घाटियों में  की   थी। कवि हिमालय की छटा के प्रसंग में उस इतिहास्तथा ऐतिहासिक काव्य को स्मरण कर रहा है।

ग)   मेघदूत के विषय में कवि ने क्या अनुमान लगाया है तथा चकवा-चकवी के विषय में कवि क्या कहना चाहते हैं ?

  -    मेघदूत के विषय में कवि ने अनुमान लगाते हुए कहा है कि उसका अब यहाँ नहीं दिखाई देने का कारण यह है कि शायद वह यहीं कहीं बरस गया होगा।अत: वह भी उन्हें उस कवि की कल्‍पना प्रतीत होती है।
       कवि ने चकवा-चकवी पक्षी को सुप्रबात के प्रसंग में स्‍मरण किया है। प्राय: माना जाता है कि यह पक्षी युगल रातभर एक-दूसरे से बिछड़ा रहता है। संभवत: उसे यह कोई शाप मिला है। परंतु प्रभात आते ही उसका मिलन हो जाता है। कवि ने बताया है कि इस प्रभात के आते ही उसका क्रंदन बंद हो जाता है और वे पुन: संयोग की अवस्‍था में पहुँच जाते हैं। अत: यह उनके लिए एक सुखद प्रभात का आगमन है।
  
घ)    प्रस्तुत कविता का मूल आधार क्या है ? कवि को हिमालय के कैलाश में अब क्या दिखाई दे रहा है ? उसकी   क्या विशेषता है ? स्‍पष्‍ट करें।
-      प्रस्‍तुत कविता का मूल आधार प्राकृतिक चित्रण है। इसमें कवि ने चित्रात्‍मक शैली में बादलों के घिरने के वातावरण के साथ-साथ प्राकृतिक परिवर्तनों और उससे जुड़ी गतिविधियों की छटा का शब्‍दचित्र प्रस्‍तुत किया है।
कवि नागार्जुन को वर्तमान से लगाव है। वे हिमालय के सौंदर्य से मोहित होकर बादलों के घिरने के प्रसंग को छेड़ रहे हैं। भीषण जाड़ों में हिमालय के कैलाश के आकाश को चूमने वाली ऊँची-ऊँची चोटियों पर मेघों को आँधी-तूफान से गरज-गरज कर भिड़ते हुए देखा जा रहा है। अत: कवि नागार्जुन को बादलों का यही रूप वास्‍तविक व सार्थक सौंदर्य का प्रतीक लगता है।
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10.अँधेरे का दीपक
                          हरिवंशराय बच्‍चन’

कवि परिचय:

१. हरिवंशराय बच्‍चन’ आधुनिक कालीन छायावादी कवि हैं।
२. ये आस्‍थावादी कवि हैं।
३. इनके गीत अत्‍यंत लोकप्रिय हैं।
४. रचनाएँ: मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, दो चट्‌टाने ( साहित्‍य अकादमी पुरस्कार) आदि है।
५. भाषा: इन्होंने प्रवाहपूर्ण, रोचक तथा व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है।

शब्दार्थ:
१. दीवा- दीपक
२. वितान- ऊपर से फैलाइ जाने वाली चादर।


प्रश्‍न: अँधेरे का दीपक ’ कविता में कवि का स्वर कैसा है ? इस कविता द्‌वारा कवि मानव को क्या प्रेरणा दे
        रहे हैं ?                                                         
उत्‍तर: अँधेरे का दीपक ’ कविता आधुनिक कालीन छायावादी कवि हरिवंशराय बच्‍चन’ द्‌वारा रचित है। इन्होंने प्राय: अपनी सभी रचनाओं में आशावादी भाव को उजागर करने की कोशिश की है। इन्होंने अपनी प्रवाहपूर्ण, रोचक तथा व्यावहारिक भाषा द्‌वारा कविताओं में जीवन की अनुभूतियों की सहज अनुभूतियाँ व्यक्‍त की है। इनकी प्रमुख रचनाएँ मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, दो चट्‌टाने( साहित्‍य अकादमी पुरस्कार) आदि है।
अँधेरे का दीपक ’ कविता में कवि का आशावादी स्वर है।
 इस कविता द्‌वारा कवि मानव को परिवर्तनों से विचलीत न होने, धैर्य न खोने तथा आत्‍म-विश्‍वास बनाए रखने की प्रेरणा दे रहे हैं।
कवि का कहना है कि प्रकृति में सृजन और संहार का काम निरंतर चलता रहता है। अत: इन परिवर्तनों से हमें विचलित नहीं होना चाहिए। चारों तरफ निराशा का भाव होने पर भी हमें उसे आशावादी बनाने की कोशिश करनी चाहिए। दुखों के क्षण में धैर्य बनाए रखते हुए परिस्‍थितियों का सामना करना चाहिए। कवि का कहना है कि भले ही हमने अपनी कल्‍पना के हाथों किसी सुंदर मंदिर का निर्माण किया था, जिसे अनेक दुष्‍प्राप्‍य रंगों से सजाया था, यदि किसी कारणवश वह ढह गया, तो भी हमें दुखी होने की आवश्‍यकता नहीं है बल्‍कि हमें आशावदी भाव के साथ पुन: नव-सृजन में जुट जाना चाहिए। कवि के शब्‍दों में-
कल्‍पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था,
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।
स्वप्‍न ने अपने करों से, था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्‍प्राप्‍य रंगों से, रसों से जो सना था।
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्‍थर, कंकड़ों को,
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है ?
कवि मानव को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि यदि हमारा सुंदर, बहुमूल्‍य रत्‍नों द्‌वारा बनाया गया मधुपात्र, जिसमें ऊषा की किरण की लालिमा जैसी लाल मदिरा छलका करती थी, यदि वह टूट गया तो हमें यह समझना चाहिए कि यह प्रकृति का नियम है जिसमें सृजन और संहार का कार्य चलता रहता है। अत: हमें अपने दुख को भूल कर अपने हाथों की हथेलियों को अंजुलि बनाकर प्यास बुझाने का प्रयास करना चाहिए। अर्थात हमें अपने प्रयत्‍नों द्‌वारा नकारात्‍मक परिस्‍थिती को सकारात्‍मक बनाने की कोशिश करनी चाहिए। उदाहर्णार्थ:
बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील, नीलम
का बनाया था गया मधु-पात्र मनमोहक, मनोरम,
.....................................................
वह अगर टूटा, मिलाकर हाथ दोनोंकी हथेली,
एक निर्मल, स्त्रोत से, तृष्‍णा बुझाना कब मना है ?
यह तो हम जानते ही हैं कि परिस्‍थितियाँ हमेशा एक-सा नहीं रहती। सुख-दुख जीवन में आते-जाते रहते हैं। अत: हमें इस प्रकार के बदलाव को धैर्यपूर्वक स्वीकार करते हुए आत्‍मविश्‍वास बनाए रखना चाहिए। हमें समय की अस्थिरता पर भी मुसकुराना चाहिए। इस संदर्भ में निम्‍न पंक्‍तियाँ प्रस्‍तुत है:
थी हँसी ऐसी जिसे सुन, बादलों ने शर्म खाई\
वह गई तो ले गई, उल्‍लास के आधार माना,
पर अथिरता पर समय की, मुसकराना कब मना है ?
कवि कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमारे संगी-साथी हमसे बिछुड़ जाते हैं, हमारे अंतरंग मित्र हमसे किनारा कर लेते हैं। ऐसी स्थिती में हमें यह सोच लेना चाहिए कि जो चले गए, वे वापस नहीं आएँगे। अत: हमें नए मीत बनाकर, जीवन-पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।
अंतत: हम कह सकते हैं कि कवि मानव को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि मनुष्‍य निर्माण का प्रतिनिधि है, इसलिए उसे यह मानना होगा कि जिसका निर्माण हुअ है, वह विध्‍वंश भी अवश्‍य होगा। अत: इस प्रकार के परिवर्तनों पर दुख मनाने की आवश्‍यकता नहीं है, बल्‍कि उसे फिर से बसाने की कोशिश करनी चाहिए। कवि के शब्‍दों में:
जो बसे हैं, वो उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को, फिर बसाना कब मना है ?
       

 
 

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